शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

गीत




प्रिय तुम्हारे प्रेम में 

मैं दस्तकारी बन गई 

मूरत मेरी ही रही 

सीरत तुम्हारी बन गई


प्रिय तुम्हारे प्रेम में...


शब्द तुम्हारे दिलबाग में 

बन भ्रमर तितली उड़े 

मैं रीझती सी पुष्प की 

क्यारी तुम्हारी बन गई


प्रिय तुम्हारे प्रेम में..


मौन संप्रेषित हुआ 

नीरव हुआ हर दायरा 

प्रीत की रुनझुन कहो 

क्यों देह सारी बन गई


प्रिय तुम्हारे प्रेम में...


दक्खिनी झोका हवा के

 विधु रात्रि के मेरे लिए 

मैं एकटक रहूं ताकती 

खिड़की खुली सी बन गई


प्रिय तम्हारे प्रेम में...

रविवार, 17 मार्च 2024

तो क्या होता?



चेहरे को हथेली पर ना टिकाते तो क्या करते.. 
इब्न-ए-मरियम ना हुआ कोई.. 
मिरे इस दर्द की ना दवा हुआ कोई। 
तेरा करीब होना हुआ होता.. 
टिकाने को चेहरा.. एक कंधा नसीब हुआ होता। 
फिर किस बात का रोना हुआ होता!
 ऐ मुहब्बत तू लहराते समन्दर के दूसरे कनारे पर झुके हुए फ़लक सी, 
गुमराह करती रही मुझे, 
बता -क़दमों को आवारा ना किया होता तो क्या होता? 
बेख़ौफ़ अबशार सी बहती रही तू मुझमें, 
जो तुझे बाहर छलका दिया होता तो सोच - की क्या होता??
 कहती है दुनिया के- जां निचोड़ कर मुहब्बत कर, 
पर सोच जो मैने दिल-जां-जिगर निचोड़ दिया होता 
तो क्या होता !!
 मेरी दरिया दिली का शुक्र मना, 
मेरे बंद लबों का अहसान उठा- 
जो ये वा हुआ होता तो क्या होता......
लिली



 

शुक्रवार, 1 मार्च 2024

Setu 🌉 सेतु: कलम की नोक पर अधूरी कविता

Setu 🌉 सेतु: कलम की नोक पर अधूरी कविता: लिली मित्रा कुछ सोचा नहीं है  कोई विषय निर्धारित नहीं है मन में एक दिशाहीनता लिए कलम बन गई है - जीवन पथ पर किधर भी मुड़ जाते.. कहीं भी रुक ज...

गुरुवार, 29 फ़रवरी 2024

समाधान की समस्याएँ


                चित्र साभार गूगल


समाधान की समस्याएँ

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'समाधान' की भी 'समस्याएँ' होतीं हैं

 मन भारी होता है

आँखें भर आती हैं

यह सोचकर

कि- कोई तो होगा जो उसकी समस्या का 'समाधान' बने?

ताकि वो भी चिड़िया के छैनों जैसे

चोंच खोल दाना लेने के लिए

उचक-फुदक करने का

सुख पा सके।


धूप


 

  धूप (भाग-1)

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आसमान कुछ नही कहता,

पेड़ कुछ नही कहते,

तार पर गदराया बैठा पंक्षी युगल भी कुछ नही कहता

सब क्यों चुप हैं ?

यही विश्लेषण करने को मेरी वाचालता भी चुप है।

सुबह चुप रहती है तो धूप के चलने की चाप

सुनाई पड़ती है।

मै सुन पाती हूँ

उसका बालकनी पर उतरना,

पेड़ों की मुंडेर पर पायल छनकाना,

गदराए पंक्षियों का

हल्की गुनगुनाहट पा,जीमना।

दूब के शीर्ष पर पड़े शिशिर बिन्दुओं का सप्तरंगी हो उठना।

सच कुनकुनाता सुख

सुबह की धूप सुनने का

चुप्पी तोड़ने का मन नही करता।

 

 

 

 

धूप (भाग-2)

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कल मैने देखा था

धूप को चलते हुए,

पायल छनकाती फिरती है वो पेड़ों की पात पर!

आज चुपके से कैद कर लिए

उसके पद छाप, तस्वीर में

दिखे?

अरे वो तो रहे...

देखो ठीक से !

हरी पात पर स्वर्णिम चिन्ह,

उसको पता नही था कि- मै आ जाऊँगीं छत पर।

वो रोज़ की तरह एक पात से दूसरी पात पर

फुदकती फिर रही थी,

एक नन्ही बालिका की तरह

उसकी पायल की छनछन संग

संगत बिठा रही थी गौरैया,बुलबुल की चीं चीं..

और नकल उतार रही थी

छत की दीवार पर पूँछ उठाकर इधर उधर टिर्र-टिर्र कर नाचती गिलहरी,

पर वो अलमस्त अपनी ही क्रीड़ा में मग्न

नाचती फिर रही थी

इस पात से उस पात पर

कनकप्रभा की छाप छोड़ती...

देखो मैने कहा था ना,

के मैने सुनी है धूप के चलने की आवाज़!

 

धूप (३)

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ज़रा ज़रा सा छन कर

आ जाया करो

घने जंगलों से

इतनी सी धूप बहुत है

ज़मीन का बदन

सुखाने के लिए


मेरी नाव


         ( साभार गूगल)


मैं एक छोटी सी नाव

छोड़ देती हूँ तुम्हारे

 समन्दर के ऊपर

वो भटकती फिरेगी इधर से उधर

हो सकता है कि तुम्हारा समन्दर कोशिश करें कभी

उसे अपनी तेज़ लहरों से दूर फेंक देने की..

हो सकता है कभी 

मेरी नाव 

सूखे सैकत तीरों पर 

झुलसती रहे समन्दरी खारी धूप में...

या भींग कर घनघोर बारिश में

काठ गल कर हो जाए रेज़ा-रेज़ा

पर मुझे विश्वास है

तुम्हारा समन्दर एक दिन ज़रूर

भेजेगा कोई अह्लादित सी लहर

जो खींच ले जाएगी मेरी नाव को

तुम्हारी अतल गहराई की ओर

उस दिन फंसा कर खुद को तुम्हारे

ही किसी मस्ताने भंवर में

मैं नाचती हुई.. घुलती हुई नमकीन पानी में

बन जाऊंगी किसी सीप का मोती,

किसी मछली का घर

या तुम्हारी दुनिया का जलमग्न कोई अवशेष।

- लिली

रविवार, 18 फ़रवरी 2024

कलम की नोंक पर अधूरी कविता


 कुछ सोचा नही है 

कोई विषय निर्धारित नही है

मन में एक दिशाहीनता लिए

कलम बन गई है -

जीवन पथ पर किधर भी मुड़ जाते..

कहीं भी रुक जाते...पग,

दीठ कल्पनाओं के 

सपनीले बादलों पर तैरने के बजाए,

बार-बार फिसल रही है...

किसी ठहरे शैवाल की कलौछ खाई हरियाली पर,

साहित्य बेमकसद...

विचारों की क्रान्ति पस्त और हताश

जीवन किसी शीर्षकविहीन, विचारविहीन, लक्ष्यहीन कविता सा

क्यों हो जाता है कभी-कभी?? 

हैरान हूँ!!

 ....आदमी खुले मैदान में

अपने लिए हवाई चौखाने काटता

खुद से जूझता

चेहरे पर झूठी खुशी और आत्मबल का

दंभ लिए

किस क्षणिक सुख के अनंत का जश्न जी रहा है?

वो बार-बार टूट रहा है 

बार-बार संवर रहा है

लेकिन हर संवरने में वह

थोड़ा-थोड़ा खत्म हो रहा है...

ये खत्म हो जाना ही मुक्ति है क्या?

क्या मुक्ति ही जीवन का सार है?

मुक्त होने के लिए टूटना चाहिए?

या हर संवरने को जी भर जीना चाहिए?

इस द्वंद का उत्तर खोजती  कविता

रुकी है कलम की नोंक पर 

अधूरी ....




-लिली